Wednesday, October 28, 2009

A  very nice poem by Maithilisharan Gupt. It was in our course during our graduation (B.Sc)

दोनों ओर प्रेम पलता है
सखि पतंग भी जलता है हा दीपक भी जलता है

सीस हिलाकर दीपक कहता
बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता
पर पतंग पडकर ही रहता कितनी विह्वलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

बचकर हाय पतंग मरे क्या
प्रणय छोडकर प्राण धरे क्या
जले नही तो मरा करें क्या, क्या यह असफलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

कहता है पतंग मन मारे
तुम महान मैं लघु पर प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे, शरण किसे छलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

दीपक के जलनें में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली, किसका वश चलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाहती जिससे चखती
काम नही परिणाम निरखती, मुझको यही खलता है
दोनों ओर प्रेम पलता है
                                                  -मैथिलीशरण गुप्त

Thursday, October 22, 2009

Indradhanush

One of the very first poetry that has affected me. It was in my course in Class V. I still remember it. 

नभ में उग आई लो रंग भरी रेखा एक टेढी सी
जिसे हम इन्द्रधनुष कहेते हैं !

उमड़ घुमड़ कर बादल ये बरसे हैं
महक उठी धरती और फूल पट्टी पौधे
सब सरसे हैं

जीवन में इसी तरह दुःख की घटाओं का अँधेरा है
इसके भी पीछे शायद रंगों का घेरा है

एक इसी आशा के तर्क पर
दुःख और दाह हम सहते हैं

जीवन के इस आकर्षण को इन्द्रधनुष कहेते हैं
                                     - नागार्जुन